रम्भा – शुक संवाद
पौराणिक ग्रन्थो में रम्भा, मेनका, उर्वशी, तिलोत्तमादि अप्सराओ का निर्देश मिलता है। रम्भा नलकुबेर की पत्नी थी, जो इन्द्र के स्वर्ग में अत्यंत सुन्दरी मानी जाती थी । यहाँ रन्भा-शुक संवाद में से चयन करके कुछ श्र्लोक प्रस्तुत किया है ।
शुक:
मार्गे मार्गे जायते साधुसङ्गः
सङ्गे सङ्गे श्रूयते कृष्णकीर्तिः ।
कीर्तौ कीर्तौ नस्तदाकारवृत्तिः
वृत्तौ वृत्तौ सच्चिदानन्द भासः ॥
मार्गे मार्गे जायते साधुसङ्गः
सङ्गे सङ्गे श्रूयते कृष्णकीर्तिः ।
कीर्तौ कीर्तौ नस्तदाकारवृत्तिः
वृत्तौ वृत्तौ सच्चिदानन्द भासः ॥
हे रंभा ! हर मार्ग में साधुजनों का संग होता है, उन हर एक सत्संग में भगवान कृष्णचंद्र के गुणगान सुनने मिलते हैं । हर गुणगाण सुनते वक्त हमारी चित्तवृत्ति भगवान के ध्यान में लीन होती है, और हर वक्त सच्चिदानंद का आभास होता है ।
तीर्थे तीर्थे निर्मलं ब्रह्मवृन्दं
वृन्दे वृन्दे तत्त्व चिन्तानुवादः ।
वादे वादे जायते तत्त्वबोधो
बोधे बोधे भासते चन्द्रचूडः ॥
वृन्दे वृन्दे तत्त्व चिन्तानुवादः ।
वादे वादे जायते तत्त्वबोधो
बोधे बोधे भासते चन्द्रचूडः ॥
हर तीर्थ में पवित्र ब्राह्मणों का समुदाय विराजमान है । उस समुदाय में तत्त्व का विचार हुआ करता है । उन विचारों में तत्त्व का ज्ञान होता है, और उस ज्ञान में भगवान चंद्रशेखर शिवजी का भास होता है ।
रम्भा
गेहे गेहे जङ्गमा हेमवल्ली
वल्यां वल्यां पार्वणं चन्द्रबिम्बम् ।
बिम्बे बिम्बे दृश्यते मीन युग्मं
युग्मे युग्मे पञ्चबाणप्रचारः ॥
गेहे गेहे जङ्गमा हेमवल्ली
वल्यां वल्यां पार्वणं चन्द्रबिम्बम् ।
बिम्बे बिम्बे दृश्यते मीन युग्मं
युग्मे युग्मे पञ्चबाणप्रचारः ॥
हे मुनिवर ! हर घर में घूमती फिरती सोने की लता जैसी ललनाओं के मुख पूर्णिमा के चंद्र जैसे सुंदर हैं । उन मुखचंद्रो में नयनरुप दो मछलीयाँ दिख रही है, और उन मीनरुप नयनों में कामदेव स्वतंत्र घूम रहा है
पीनस्तनी चन्दनचर्चिताङ्गी
विलोलनेत्रा तरुणी सुशीला ।
नाऽऽलिङ्गिता प्रेमभरेण येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनिवर ! सुंदर स्तनवाली, शरीर पर चंदन का लेप की हुई, चंचल आँखोंवाली सुंदर युवती का, प्रेम से जिस पुरुष ने आलिंगन किया नहीं, उसका जन्म व्यर्थ गया
शुक: अचिन्त्य रूपो भगवान्निरञ्जनो विश्वम्भरो ज्ञानमयश्चिदात्मा । विशोधितो येन ह्रदि क्षणं नो वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ जिसके रुप का चिंतन नहीं हो सकता, जो निरंजन, विश्व का पालक है, जो ज्ञान से परिपूर्ण है, ऐसे चित्स्वरुप परब्रह्म का ध्यान जिसने स्वयं के हृदय में किया नहीं है, उसका जन्म व्यर्थ गया। |
रम्भा
कामातुरा पूर्णशशांक वक्त्रा
बिम्बाधरा कोमलनाल गौरा ।
नाऽऽलिङ्गिता स्वे ह्र्दये भुजाभ्यां
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
कामातुरा पूर्णशशांक वक्त्रा
बिम्बाधरा कोमलनाल गौरा ।
नाऽऽलिङ्गिता स्वे ह्र्दये भुजाभ्यां
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनि ! भोग की ईच्छा से व्याकुल, परिपूर्ण चंद्र जैसे मुखवाली, बिंबाधरा, कोमल कमल के नाल जैसी, गौर वर्णी कामिनी जिसने छाती से नहीं लगायी, उसका जीवन व्यर्थ गया ।
शुक:
चतुर्भुजः चक्रधरो गदायुधः
पीताम्बरः कौस्तुभमालया लसन् ।
ध्याने धृतो येन न बोधकाले
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
चतुर्भुजः चक्रधरो गदायुधः
पीताम्बरः कौस्तुभमालया लसन् ।
ध्याने धृतो येन न बोधकाले
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे रंभा ! चक्र और गदा जिसने हाथ में लिये हैं, ऐसे चार हाथवाले, पीतांबर पहेने हुए, कौस्तुभमणि की माला से विभूषित भगवान का ध्यान, जिसने जाग्रत अवस्था में किया नहीं, उसका जन्म व्यर्थ गया ।
रम्भा विचित्रवेषा नवयौवनाढ्या लवङ्गकर्पूर सुवासिदेहा । नाऽऽलिङ्गिता येन दृढं भुजाभ्यां वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ हे मुनिराज ! अनेक प्रकार के वस्त्र और आभूषणों से सज्ज, लवंग कर्पूर इत्यादि सुगंध से सुवासित शरीरवाली नवयुवती को, जिसने अपने दो हाथों से आलिंगन दिया नहीं, उसका जन्म व्यर्थ गया । |
शुकः
श्रीवत्सलक्षाङ्कितह्रत्प्रदेशः
तार्क्ष्यध्वजः शार्ङ्गधरः परात्मा ।
न सेवितो येन नृजन्मनाऽपि
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
श्रीवत्सलक्षाङ्कितह्रत्प्रदेशः
तार्क्ष्यध्वजः शार्ङ्गधरः परात्मा ।
न सेवितो येन नृजन्मनाऽपि
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
जिस प्राणी ने मनुष्य शरीर पाकर भी, भृगुलता से विभूषित ह्रदयवाले, धजा में गरुड वाले, और शाङ्ग नामके धनुष्य को धारण करनेवाले, परमात्मा की सेवा न की, उसका जन्म व्यर्थ गया ।
रम्भा चलत्कटी नूपुरमञ्जुघोषा नासाग्रमुक्ता नयनाभिरामा । न सेविता येन भुजङ्गवेणी वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! चंचल कमरवाली, नूपुर से मधुर शब्द करनेवाली, नाक में मोती पहनी हुई, सुंदर नयनों से सुशोभित, सर्प के जैसा अंबोडा जिसने धारण किया है, ऐसी सुंदरी का जिसने सेवन नहीं किया, उसका जन्म व्यर्थ गया । |
शुक:
विश्वम्भरो ज्ञानमयः परेशः
जगन्मयोऽनन्तगुण प्रकाशी ।
आराधितो नापि वृतो न योगे
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
विश्वम्भरो ज्ञानमयः परेशः
जगन्मयोऽनन्तगुण प्रकाशी ।
आराधितो नापि वृतो न योगे
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे रंभा ! संसार का पालन करनेवाले, ज्ञान से परिपूर्ण, संसार स्वरुप, अनंत गुणों को प्रकट करनेवाले भगवान की आराधना जिसने नहीं की, और योग में उनका ध्यान जिसने नहीं किया, उसका जन्म व्यर्थ गया ।
रम्भा
ताम्बूलरागैः कुसुम प्रकर्षैः
सुगन्धितैलेन च वासितायाः ।
न मर्दितौ येन कुचौ निशायां
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
ताम्बूलरागैः कुसुम प्रकर्षैः
सुगन्धितैलेन च वासितायाः ।
न मर्दितौ येन कुचौ निशायां
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनि ! सुगंधी पान, उत्तम फूल, सुगंधी तेल, और अन्य पदार्थों से सुवासित कायावाली कामिनी के कुच का मर्दन, रात को जिसने नहीं किया उसका जीवन व्यर्थ गया ।
शुकः ब्रह्मादि देवोऽखिल विश्वदेवो मोक्षप्रदोऽतीतगुणः प्रशान्तः । धृतो न योगेन हृदि स्वकीये वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ ब्रह्मादि देवों के भी देव, संपूर्ण संसार के स्वामी, मोक्षदाता, निर्गुण, अत्यंत शांत ऐसे भगबान का ध्यान जिसने योग द्वारा हृदय में नहीं किया उसका जीवन व्यर्थ गया । |
रम्भा कस्तूरिकाकुंकुम चन्दनैश्च सुचर्चिता याऽगुरु धूपिकाम्बरा । उरः स्थले नो लुठिता निशायां वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ कस्तूरी और केसर से युक्त चंदन का लेप जिसने किया है, अगरु के गंध से सुवासित वस्त्र धारण की हुई तरुणी, रात को जिस पुरुष की छाती पर लेटी नहीं, उसका जन्म व्यर्थ गया । |
शुकः मायाकरण्डी नरकस्य हण्डी तपोविखण्डी सुकृतस्य भण्डी । नृणां विखण्डी चिरसेविता चेत् वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥ हे रंभा ! नारी माया की पटारी, नर्क की हंडी, तपस्या का विनाश करनेवाली, पुण्य का नाश करनेवाली, पुरुष की घातक है; इस लिए जिस पुरुष ने अधिक समय तक उसका सेवन किया है, उसका जीवन व्यर्थ गया । |
रम्भा
समस्तशृङ्गार विनोदशीला
लीलावती कोकिल कण्ठमाला ।
विलासिता नो नवयौवनेन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
समस्तशृङ्गार विनोदशीला
लीलावती कोकिल कण्ठमाला ।
विलासिता नो नवयौवनेन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनि ! जिस पुरुष ने अपनी युवानी में, समस्त शृंगार और मनोविवाद करने में चतुर और अनेक लीलाओं में कुशल और कोकिलकंठी कामिनी के साथ विलास नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ है ।
शुक:
कापट्यवेषा जनवञ्चिका सा
विण्मूत्र दुर्गन्धदरी दुराशा ।
संसेविता येन सदा मलाढ्या
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
कापट्यवेषा जनवञ्चिका सा
विण्मूत्र दुर्गन्धदरी दुराशा ।
संसेविता येन सदा मलाढ्या
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
छल-कपट करनेवाली, लोगों को बनानेवाली, विष्टा-मूत्र और दुर्गंध की गुफारुप, दुराशाओं से परिपूर्ण, अनेक प्रकार से मल से भरी हुई, ऐसी स्त्री का सेवन जिसने किया, उसका जीवन व्यर्थ है ।
1 टिप्पणी:
very good article
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