सोमवार, 30 अप्रैल 2018

वेदों में जमदग्नि ऋषि का तत्त्वज्ञान


प्रस्तावना :

        वैदिक ऋषियों में जमदग्नि भार्गव की महत्वपूर्ण प्रतिष्ठा है वेदों में श्रेष्ठ पुरूष के रूप में जमदग्नि का वर्णन किया गया है । ऋग्वेद और अथर्ववेद में इसका अनेक बार उल्लेख आया है । ऋग्वेद के 9 सूक्तों में और अथर्ववेद के 8 सूक्तों में जमदग्नि का कुछ स्थानों पर स्वतंत्र और कुछ स्थानो पर समुदित ऋषित्व है । जमदग्नि ऋषि बड़ा तपस्वी था । वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षियों में सें यह एक था । भृगु  ऋषि के वंशज होने के कारण इसके नाम के साथ अपत्यवाचक पद भार्गव जोडा गया है । तैत्तिरीयसंहिता[1] में जमदग्नि का  वर्णन  विश्वामित्र के मित्र और वसिष्ठ के विरोधी के रूप में मिलता है । अर्थात् यह  विश्वामित्र  के पक्ष का, तथा वसिष्ठ के प्रतिपक्ष का बताया गया है । अथर्ववेद[2] में इसका सम्बन्ध, अत्रि ,कण्व, असित और वीतहव्य के साथ मिलता है ।

जमदग्नि शब्द का अर्थ एवं व्युत्पत्ति :  
 
(1) जम् -धातु गत्यर्थक है और इसका अर्थ प्रज्वलिताग्नि होता है[3] । जमदग्नि नामक ऋषि का जीवनचरित्र अग्नि जैसा तेजस्वि ,दैदिप्यमान था, इसलिये यह ऋषि को जमदग्नि कहा गया है । यमदग्नि से जमदग्नि शब्द बना है ।
(2) निरुक्त में भी यास्क ने जमदग्नि का अर्थ प्रज्वलित अग्नि के अर्थ में लिया है[4] 1.जमदग्नय: प्रयमिताग्नयो वा जमु अदने+अति>जमत, जमत + अग्नि > जमदग्नि 2.प्रज्वलिताग्नयो वा  जमत+अग्नि>जमदग्नि । अर्थात् प्रयमिताग्नि-बहुत अग्नि वाले  अथवा प्रज्वलिताग्नि  अर्थात्  जिनका अग्नि  प्रज्वलित  रहता है ।
(3) शतपथब्राह्मण में जमदग्नि ऋषि की दार्शनिक व्याख्या चक्षु के रूप में मिलती है- जमदग्निर्ऋषिरिति चक्षुर्वैजमदग्निर्ऋषिर्यदनेन जगत्पश्यत्यथो मनुते तस्माच्चक्षुर्जमदग्निऋषि:[5] अर्थात् जमदग्नि ऋषि को चक्षु कहा है, जिससे इस जगत को देखा जाता है - मनन किया जाता है ।
(4) वाजसनेय संहिता के महीधर भाष्य में जमदग्नि शब्द का अर्थ नेत्र लिया  
    है[6]
(5) बृहद्देवताकार जमदग्निऋषि के ऋषित्वकें बारे में लिखता है - तुष्टाव  
    जमदग्निश्च तेन देवा वृतावृधैा[7]
(6) तैत्तिरियारण्यक में  जमदग्नि के लिये कहा है - जमदग्निमकुर्वत ।
    जमदग्निराप्यायते[8] । अर्थात् भाष्यकार भट्ट भास्कर कहते है -जमदग्निं  
    व्याप्त्युन्मुखदीप्तिं अकुर्वत । ततोसौ सर्वव्यापी परमात्मालक्षण:  
    सर्वप्रवृत्त्यौन्मुख्यं प्रतिपद्यते । तत: स आत्मा जमदग्निकृत:  
    प्रजाताग्निस्थानीय:
(7) आचार्य सायण  भी इसका ऋषित्व प्रमाणित करने के लिऐ कहते है -  
    कृत्स्नस्य विश्वामित्र ऋषिरन्त्यस्य तृचस्य जमदग्निर्वा[9]

जमदग्नि की उत्पत्ति :

      वेदो में जमदग्नि की उत्पत्ति का कोई निर्देश नही मिलता है, केवल अथर्ववेदमें जमदग्नि के पितामह वरुण और पिता भृगु का उल्लेख मिलता है[10]। आचार्य सायण भी अपने ऋग्वेद भाष्य में कहते है - वरुणपुत्रस्य भृगोराषॅं भार्गवस्य जमदग्नेर्वा[11]। महाभारत[12], हरिवंश[13], ब्रह्मपुराण[14] और स्कन्दपुराण[15] के अनुसार  भृगकुल के ऋत्विक नामक ऋषि को, गाधिराजकन्या सत्यवती से जमदग्नि उत्पन्न हुआ । भृगुकुल के लोगो को भृगुपुत्र कहते थे । इसका पैतृक नाम आचिक था । इक्ष्वाकुवंशीय रेणु प्रसेनजित राजा की कन्या रेणुका जमदग्नि  की पत्नी थी[16] । अपने पूर्वजन्म में यह अदिति थी । इसका स्वयंवर भागिरथी क्षेत्र में हुआ ,इसने स्वंयवरमें जमदग्नि  का वरण किया । उससे इसे रुमण्वत्, सुषेण, वसुमत् ,विश्वावसु तथा परशुराम नामक पांच पुत्र हुए ।

ऋग्वेद में जमदग्नि  का तत्त्वज्ञान :

      ऋग्वेद के 9 सूक्तो में जमदग्नि का तत्त्वज्ञान मिलता है । 3/53,62 ; 8/101 ; 9/62,65,107 ; 10/110,137,167 तृतीय मण्डल के दो सूकतो में - तिरपन और बासठ में  जमदग्नि का निर्देश मिलता है, तिरपनवे सूक्त में ऋषि के रूप में नहीं किन्तु ,ऋषि विश्वामित्र  गाथिन ने जमदग्नि का उल्लेख किया है । जैसे - ससर्परीरमतिं बाधमाना बृहन्मिमाय  जमदग्निदत्ता[17] सा पक्षया (पक्ष्या)  नव्यमायुर्दधाना  यां मे पलस्तिजमदग्नयो ददु:[18] अर्थात् एक बार सौदास के यज्ञ में, वसिष्ठपुत्र शक्ति ने  विश्वामित्र को वाद में पराजित किया । उसे यज्ञ में से भगा दिया । तब सूर्य से ससर्परी[19]नामक, वाणीका सामर्थ्य बढानेवाली विद्या ला कर जमदग्नि ने उसे  विश्वामित्र को दी, तथा उसके कुल की वृध्धि की । यहॉं विश्वामित्र के साथ जमदग्नि की मित्रता प्रतीत होती है । इस स्थान पर जमदग्निको वयोवृध्ध कहा है । यहॉं जमदग्नयो ददु: में बहुवचन का निर्देश होने के कारण यह कुल का निर्देश प्रतीत होता है
      तृतीय मण्डल का 62 वॉं अंतिम सूक्त विश्वामित्र और जमदग्नि दोनो का मिलकर है उस सूक्त  में  प्रथम 15 ऋचाएँ  विश्वामित्र की और अंतिम 3  जमदग्नि की कही गई है इस सूक्त में महर्षि जमदग्नि ने अंतिम तीन ऋचाओं में मित्रावरु की  स्तुति की है अंतिम ऋचा में कहा है - गृणाना   जमदग्निना योनावृतस्य सीदतम् जमदग्नि ऋषि ध्वारा स्तुत्य हे मित्रावरुणो !  आप यज्ञ स्थल में बिराजो

      ऋग्वेद अष्टम् मण्डल का सूक्त 101 स्वतंत्र रूप से जमदग्नि भार्गव का है इसकी ऋचाएँ मित्रावरुणौ, आदित्य, अश्विनौ, वायु, सूर्य़, उषस् ,पवमान - सोम और इन्हीं के साथ गाय पर भी रची हुई हैमित्रावरुणौ के सूक्तो में उनके स्पशों को अय़ः शीर्षा (सुवर्ण से अलंकृत मस्तक वाला) कहा है वट् इस अव्यय का प्राय: इत्था के साथ प्रयोग ऋग्वेद में पाया जाता है पर इस सूक्त में सूर्य देवतापर जो दो ऋचाए है उनमें केवल वट् सचमूच का ही प्रयोग है -  वट् सूर्य श्रवसा महॉ असि सत्रा देव महॉ असि इस सूक्त में सूक्तकार जमदग्नि जिसे मारना ठीक नही है, एैसी गायो का संबंध वसु, रुद्र तथा आदित्य तीनो गणों से जोडता है वह कहता है : गायों माता रुद्राणां दुहिता वसूनां, स्वसादित्यानाम् है[20] वह उसे अमृतस्य नाभि अर्थात् अमृत का मूल बतलाता है और मा गामनागामदितिं वधिष्ट एसी लोगो से प्रार्थना करता है इस प्रकार यहॉं गाय को देवता मानकर स्तुति करके उसका महत्व दिखलाकर उसकी प्रशंसा की है यहॉ इस सूक्त में यह भी प्रतीत होता है कि हिन्दु धर्म में गाय को पवित्र माना जाता है इस विचारधारा का मूल ऋग्वेदमें यहॉं दिखाई देता है

      ऋग्वेद के मण्डल नव में तीन सूक्तो में जमदग्नि का कर्तृत्व दिखाई देता है यहाॉ सूक्त क्रमांक 62 और 65 में जमदग्नि का ऋषित्व स्वतन्त्र रूप से मिलता है और सूक्त क्रमांक 107 में ऋषित्व समुदित है सूक्त 62 और 65 में  जमदग्नि के पितामह वरु और पिता भृगु का उल्लेख मिलता है दोनों  सूक्तों में इसने अपना नाम ग्रथित किया है यहॉ पर सोम को गृणानो  जमदग्निना कहा है तृच की देवता है मित्रावरुण । अत एव हॉ कहता है गृणाना जमदग्निना यह चर ऋग्वेदमें सू्क्त 101-8 में आ गया है उसी को यहॉ फिर से लिया गया है 62 वें सूक्त में यज्ञ पर रथ का रूपक करके एक रूपकातिशयोक्ति अलंकार साधा है ऋषि यज्ञ रूप रथ को कहता है त्रिबंधुर तथा त्रिपृष्ठ-अश्विनौ के रथ का सा त्रिबंधुर, अर्थात् तीन सवनों पर आधारित 65 वें सूक्त में जमदग्नि ऋषि ने पास के देशों में सोम कैसे दूर तक फैला है, इसका वर्णन किया है इसी प्रसंग से शर्यणावत्, आर्जीक, कृत्वन, पस्त्य ये देशवाचक नाम निर्दिष्ट किये गए हैं । इस सूक्त में एक त्रिक है त्रिक का ध्रुव चर है, पान्तमा पुरुस्पृहम् लेकिन अन्य ध्रुवचरणों के समान इसका स्वतन्त्र अर्थ नहि होता अर्थ करने के लिए अंतिम ऋचा से सुक्रतो तनुषु और प्रथम ऋचा से वृणीमहे लेकर ही सारे त्रिक का अर्थ करना पडता है जैसे सोम को हम तनुषु अर्थात् निज के लिये तथा बाल-बच्चों के लिये पुत्र - पौत्रौं के लिये वृणीमहे अर्थात् पसंद करते है, सा त्रिक का अर्थ करना पडता है

      अब मंडल नव के  सूक्त क्रमांक 107 की चर्चा करे, जिस के रचयिता ऋषि सात है किन्तु यह ज्ञात न होने से कि किस ऋषि की रची कौन सी ऋचा है, सातों सूक्तकार माने गये हैं  सप्तर्षि की यह कल्पना सप्तहोत्रों पर से आई होगी किसी समय भरद्वाज, कश्यप, गौतम, अत्रि, विश्वामित्र, जमदग्नि और वसिष्ठ नामक सप्तर्षियों ने सात होत्रकर्म किये होंगे और तभी से यह सप्तर्षि समूह प्रसिद्ध हुआ होगा यह 107 वें सूक्त की ऋचाएँ 26 है

      ऋग्वेद के दशम ण्डल में जमदग्नि का स्वतन्त्र रूप में तथा समुदित रूप में भी ऋषित्व मिलता है 110 वें सूक्त में जमदग्नि ने स्वतन्त्र रूप में आप्री देवताओं की स्तुति की है विश्वदेवों पर सात ऋचाओ का सूक्त 117 अनुक्रम से भरद्वाज, कश्यप, गौतम, अत्रि, विश्वामित्र, जमदग्नि और वसिष्ठ नामक सात ऋषियों ने बनाया है 167वें सूक्त में  विश्वामित्र और जमदग्नि का समुदित ऋषित्व मिलता है

थर्ववेद में जमदग्नि का तत्त्वज्ञान :
      थर्ववेद के सूक्तो में  जमदग्नि का कुछ स्थानो पर स्वतन्त्र औऱ कुछ स्थानो पर समुदित  ऋषित्व हैं । अथर्ववेद में बाइस बार सप्तर्षियों का नामोल्लेख हुआ है, वहॉं सप्तर्षियों में जमदग्नि भार्गव का नामोल्लेख मिलता है थर्ववेद में  इनके देवत्व के भी दर्शन होते है - या तेनोच्यते सा देवा सूत्र के अनुसार तर्क संगत भी हैं ।

      थर्ववेद में काण्व, मृगार, थर्व, और वीतहव्य जैसे ऋषियों ने अपने सूक्तों में प्रसंगवशात् जमदग्नि का उल्लेख किया है जैसे ऋषि काण्व कृमिनाशक सूक्त में कहते है - अत्रिवद् वः क्रिमयो हन्मि कण्ववज्जमदग्निवत्[21] अर्थात् हे कृमियों ! हम अत्रि, ण्व और जमदग्नि ऋषि के सदृश मंत्र शक्ति से तुम्हें मारते हैं यहॉ कृमियों को मारने की बात की गई है, किन्तु किस तरह मारेगें तो ऋषि काण्व कहते है , "जमदग्नि की तरह" अत: यहां इस बात की पुष्टि होती है कि जमदग्नि ऋषि बडा कृमिनाशक भी था वैदिक काल में कृमियों को नष्ट करने वाला जमदग्नि जैसे रोग विशेषज्ञ थे यह प्रतीत होता है

      मृगार ऋषि अपने पापमोचन सूक्त में कहते है - हे मित्रावरु ! आप दोनों अंगिरा, अगस्त्य, अत्रि और जमदग्नि ऋषि की सुरक्षा करते हैं[22]थर्वा ऋषि दीर्धायु सूक्त में कहते है -त्र्यायुषं जमदग्नेः[23] अर्थात् जमदग्नि के तीन आयुष्य[24] द्वारा तुम्हारे आयुष्य को संस्कारित करते हैं  ऋषि आगे कहते हैं -कण्व, कक्षीवान्, पुरुमीढ, अगस्त्य, श्यावाश्, सोरि, विश्वामित्र, जमदग्नि, अत्रि, कश्यप और वामदेव आदि सभी पूजनीय ऋषि हमारी रक्षा करें[25]थर्वा ऋषि ने सप्तषियों से भी सुख की कामना की है - विश्वामित्र जमदग्ने वसिष्ठ भरद्वाज गौतम वामदेव शर्दिर्नो अत्रिरग्रभिन्नमोभि: सुसंशास: पितरो मृडता न:[26]।। अर्थात् विश्वामित्र, जमदग्नि आदि हे ऋषियों ! आप सभी हमें सुख प्रदान करें अत्रि ऋषि ने हमारे गृह को संरक्ष हेतु स्वीकार किया है हे स्वाधान्न से स्तुति योग्य पितृग! आप सभी हमारे लिए सुखकारी है इस सूक्त में जमदग्नि ऋषि का दो बार निर्देश हुआ है ऋचा क्रमांक 15में कण्व, कक्षीवान्,  पुरुमीढ दि ऋषियों के साथ औऱ ऋचा क्रमांक 16 में सप्तषियों के साथ निर्देश हुआ है

      ऋषि वीतहव्य अपने केशवर्धन सूक्त में केशों की वृद्धि करने वाला आयुर्वेदाचार्य़ के रूप में दिखते हैं । वह कहते है - यां जमदग्निरखनद् दुहित्रे केशवर्धनीम् तां वीतहव्य आभरदसितस्य गृहेभ्य:[27] अर्थात् महर्षि जमदग्नि ने अपनी कन्या के केशों की वृध्धि के लिए, जिस षधि को खोदा, उसे वीतहव्य नाम वाले महर्षि, कृष्ण केश नामक मुनि के घर से लाए थे

      वर्तमान काल में एक गंभीर समस्या है, बिखरते हुए केशो को टिकाना, काले बालों को सुरक्षित रखना । किन्तु वैदिक काल में भी यह समस्या होंगी इस लिए जमदग्नि जैसे महर्षि अपनी कन्या के केशों की वृद्धि के लिए   औषधि का इस्तेमाल करते थे । लेकिन यहाँ इस सूक्त में वह केश बढाने वाली वनस्पति का नामोल्लेख नहीं किया है

      अथर्ववेद में कुछ स्थानों पर जैसे काण्ड 6 में सूक्त क्रमांक 8, 9 और 102 में जमदग्नि ऋषि का स्वतन्त्र ऋषित्व भी मिलता है । उस तीन सूक्त में ऋषि होने का गौरव इन्हें प्राप्त होता है । इन सूक्तो के देवता कामात्मा, अश्विनौ आदि हैं । आठ वें सूक्त मे ऋषि जमदग्नि कामात्मा  देवता को कामिन्यसो यथा मन्नपगा अस: इस ध्रुव वाक्य में अपने पास रहनें के लिये कहते है - यथा वृक्षं लिबुजा समन्तं परिषस्वजे एवा परिष्वजस्य मां यथा मां कामिन्यसो यथा मन्नापगा स:[28]  अर्थात् (हे देवी !) जिस प्रकार वेल वृक्ष के सहारे ऊपर उठती है, उसी प्रकार तुम मेरी कामना वाली होकर, मेरे साथ सघनता से जुडी रहो और मुझ से दुर न जाओ । इस  सूक्त के देवता कामात्मा  है । सामान्यरूप से अपनी कामना करने वाली पत्नी का संदर्भ इससे जोडा गया है, किन्तु किसी भी व्यक्तित्व या कला या शक्ति के संदर्भ में इस सूक्त के भाव सटीक बैठते हैं ।

      सूक्त नवमें भी देवता कामात्मा  है । ऋषि कहते हैं - तुम मेरे शरीर और दोनों पैरों की इच्छा वाली हो मैं तुम्हे अपनी बाहुओ और ह्रदय में आश्रय लेने वाली बनाता हूँ ।  यासां नाभिरारेहणं ह्रदि संवननं कृतम् । गावो घृतस्य मातरोऽमूं सं वानयन्तु में । अर्थात् जिसकी नाभि हर्षदायक तथा ह्रदय स्नेहयुक्त हैं, उस (स्त्री) को घृत उत्पादक गौएँ (या किरणें) हमारे साथ संयुक्त करें । सूक्त 8 की तरह इस  सूक्त का अर्थ भी पत्नी के सन्दर्भ में किया जाता है, किन्तु तीसरे मन्त्र का भाव घृत उत्पादक गौएँ मेरी ओर भेंजे यह संकेत करता है कि मन्त्र का लक्ष्य ओजस्विता जैसी कोई सूक्ष्म शक्ति भी हैं ।

      अथर्ववेद के 6-103 अभिसांमनस्य  सूक्त में जमदग्नि ऋषि ने अश्विनीकुमारौ देवता से सदैव अनुकूल व्यवहार करने के लिए प्रार्थना की है । जैसे - जिस प्रकार रथ में जुते हुए घोडे वाहक की इच्छानुसार वर्ताव करते है, उसी प्रकार आपका मन हमारी ओर आकर्षित रहें वायु द्वारा उरवाडा गया तृण जिस प्रकार वायु में ही घूमता रहता है, उसी प्रकार आपका मन हमारे साथ ही रमण करें । इस प्रकार यहाँ  जमदग्नि ने अश्विनीकुमारों की कृपा सदैव अपने पर छायी रहे ऐसी कामना की है

      इस प्रकार ऋग्वेद और अथर्ववेद में भार्गव जमदग्नि ऋषि और उनका तत्त्वज्ञान कुछ स्थानो पर स्वतन्त्र रूप में और कुछ स्थानो पर समुदित रूप में प्राप्त होता है यहाँ जमदग्नि ऋषि ने अपनें सूक्तो में मित्रावरूण, आदित्यगण, अश्विनौ, वायु, सूर्य़, उषा, पवमान, गौ, विश्वदेवो, कामात्मा और वनस्पति जैसे गौण देवताओं की स्तुति की है । ऋग्वेद में जमदग्नि का विश्वामित्र के साथ तीन सूक्तो में निर्देश हुआ है[29] । सप्तर्षियो मे भरद्वाज, कश्यप, गौतम, अत्रि, विश्वामित्र और वसिष्ठ के साथ ऋग्वेदमें दो बार[30] और अथर्ववेद में एक बार[31] उल्लेख हुआ है किन्तु अथर्ववेद में ऋषि कश्यप का उल्लेख नहीं किया है, कश्यप के स्थान पर वामदेव का उल्लेख किया है ।

      अब अंतमें कुछ पौराणिक कथाओं के सन्दर्भ के बारे में विचार किया जाय तो, वेदो में जमदग्नि और कार्तवीर्यपुत्रो के बीच का संघर्ष, जमदग्नि का क्रोधी स्वभाव और पिता जमदग्नि का बदला लेने के लिये परशुराम का क्षत्रियों का इक्कीस बार निःपात सी कोई कथाएँ नहीं मिलती किन्तु, महाभारत[32], ब्रह्मवैवर्तपुरा[33] और ब्रह्माण्डपुरा[34] की कथा अनुसार कार्तवीर्य पुत्रोंने पिता के वध का बदला लेने के लिये ,परशुराम की अनुपस्थिति में, जमदग्नि का इक्कीस बाणो से वध किया तथा उसकी हत्या कर डाली यह वृत्त परशुराम कों ज्ञात होते ही, उसने क्षत्रियो का इक्कीस बार निःपात करजमदग्नि के वध का बदला ले लिया

     वेदो में जिस प्रकार जमदग्नि ऋषि की उत्पत्ति का कोई संदर्भ नहीं मिलता इस प्रकार उसका अंत का भी कोई सन्दर्भ नहीं मिलता । अंतमें  मैं इतना कहूँ सन्दर्भ मिले या ना मिले महाकवि भवभूति उत्तररामचरित नाटक की प्रस्तावना में कहते है -"सर्वथा ऋषयो देवताश् श्रेयो विधास्यान्ति " अर्थात् ऋषियों और देवता सभी तरह का कल्या करेंगें "ऋषति संसारात् पारं दर्शयति ऋषिः" व्य़ाख्या को सार्थक करने वाला , जिसके पास मंत्रसामर्थ्य, बुध्धिसामर्थ्य औऱ शस्त्रसामर्थ्य था, जिसका जीवन तेजोमय औ रसमय था, जिसने स्वयं अपना उध्धार किया एैसे महर्षि जमदग्नि को मैें अंतःकरपूर्वक नमस्कार करता हूँ 

पादटीप



[1]  तैत्तिरीयसंहिता, 3/1/7/3; 5/4/11/3

[2]  अथर्ववेद, 2/32/3; 6/137/1
[3]  वैदिक कोश, भाग-1,पं.चन्द्रशेखर उपाध्याय,नाग प्रकाशक दिल्ली,पृ.564,1995
[4]  निरुक्तम् , 7/7
[5]  शतपथब्राह्मणम्, 8/1/2/3
[6]  वाजसनेयसंहिता, महीधर भाष्य, 13/56
[7]  बृहद्देवता, 4/125
[8]  तैत्तिरीयारण्यकम्, 1/9
[9]  ऋग्वेद, 3/62, सायणभाष्य
[10] अथर्ववेद, 9/62,65
[11] ऋग्वेद, 9/65, सायणभाष्य

[12]  महाभारत अदिपर्व,60/46, वनपर्व, 116/8
[13]  हरिवंश, 1/27/35
[14]  ब्रह्मपुराण, 10
[15]  स्कंदपुराण, 6/66
[16]  भागवत, 9/15/2, हरिवंश, 1/27/38, महाभारत वनपर्व, 116/2
[17]  ऋग्वेद, 3/53/15
[18]  वही, 3/53/16
[19]  भाषण कौशल्य, सर्वत्र व्यापने वाली उषा , शिष्य परंपरा से प्राप्त होनेवाली विद्या ।
[20]  ऋग्वेद, 8/101/15

[21]  अथर्ववेद, 2/32/3
[22]  वही, 4/29/3
[23]  वही, 5/28/7

[24]  तीन आयुष्य का मतलब हैं सौ वर्ष की आयु के लिए नौ प्राणों को शरीरस्थ नौ चक्रो के साथ संयुक्त करते हैं । मनुष्यमें नौ चक्र समाहित हैं । तीन - मूलाधार, स्वाधिष्ठान एवं मणिपूरक कर्म प्रेरक अयस् युक्त हैं । तीन - अनाहत, विशुध्धि तथा आज्ञाचक्र प्रकाशक अर्थात् राजस् हैं । तीन - तालुचक्र, सहस्रार तथा ब्रह्मरन्ध्र सत् या हिरण्ययुक्त हैं । यज्ञोपवीत के सन्दर्भ में विचार किया जाय तो एक कड के तीन तार सोने के, दूसरी के चाँदी के तथा तीसरी के लोंहे या अन्य धातु के बनाकर, उसे धारण करने से शरीर की तीन – उपरी, बीच के तथा नीचे वाले भागों या चक्रों पर प्रभाव पडता हैं ।
[25]  अथर्ववेद, 18/3/15

[26]  वही, 18/3/16

[27]  वही, 6/137/1

[28]  अथर्ववेद, 6/8/1

[29]  ऋग्वेद, 3/53/62; 10/167

[30]  वही, 9/107; 10/137

[31]  अथर्ववेद, 18/3/16

[32]  महाभारत – शान्तिपर्व, 49/56
[33]  ब्रह्मवैवर्तपुराण, 3/24
[34]  ब्रह्माण्डपुराण, 3/45

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1  अर्ववेद संहिता, पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, प्रकाशक - ब्रह्मवर्चस शांतिकुं,   
   हरिद्वार (उ.प्र) संवत-2052
2. ऋग्वेद संहिता, पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, प्रकाशक -ब्रह्मवर्चस शांतिकुंज हरिद्वार  
   (उ.प्र) संवत-2051
3. ऋग्वेद संहिता (सायभाष्य सहित) वैदिक संशोधन मण्ड,पूना,ई.स-1946
4. ऋग्वेदसूक्त विकास, प्रा.ह.रा दिवेकर, मोतीलाल बनारसीदास,दिल्ली ई.स.-1970
5. तैत्तिरीयारण्यकम्, बाबाशास्त्री फडके तथा हरिनारायआप्टे, न्दाश्रम, पूना  
   ई.स. - 1898
6. तैत्तिरीयसंहिता, सं.नाराय शर्मा सोनटक्के तथा त्रिविक्रम शर्मा, वैदिक  
   संशोधन मण्ड पूना,  ई.स.- 1972
7. निरुक्तम् ,पं. सीताराम शास्त्री ,परिमलल पब्लिकेशन् ,दिल्ली, ई.स.- 2002
8. वाजसनेय संहिता ,श्री जीवानन्दविद्यासागर भट्टाचार्य, कलिकातानगर्याम्,  
   ई.स.- 1892
9. शतपथब्राह्मणम्, पं.रामनाथदीक्षित, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, द्वितीय  
   संस्करण, वि.सं – 2040

कोष

1. प्राचीन चरित्रको, सिध्धेश्वरशास्त्री चित्राव, भारतीय चरित्रकोश मण्ड, पूना   
   ई.स - 1964
2. पौराणिक कोष, राणाप्रसाद शर्मा, ज्ञान मण्डल लिमिटेड वारासी, द्वितीय  
   संस्करण, ई.स - 1986
3. वैदिकको भाग-1, पं. चन्द्रशेखर उपाध्याय एवं श्री अनिल  उपाध्याय, नाग  
   प्रकाशक दिल्ली ई.स.- 1995

प्रो.डॉ.दिनेशकुमार आर.माछी
संस्कृत विभागाध्यक्ष, एसोसियेट प्रोफेर,
सरकारी विनयन कोलेज शहेरा, जि.पंचमहाल, गुजरात.

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